Friday, 22 August 2014

अमृता पूरी हुयी
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नहीं अभी नहीं
कुछ कहानी अधूरी है
कुछ बाकी है क़लम में स्याही
कुछ पन्ने अभी भी कँवारे हैं
कुछ शब्दों को देनी है ताक़त
कुछ और अनकही मेरे अंदर है
जि़द करो
मैं जानती हूँ तुम क्या चाहते हो
तुम्हें मुझसे ज़्यादा कौन जानेगा
तुम से ज़्यादा आज मेरा अपना
कोई भी तो नहीं ?
थोड़ा समय और दो
थोडी़ हिम्मत और बढा़ओ मेरी
कुछ पृष्ठों पे अल्फा़जो़ की मीनाकारी
अभी बाकी़ है
सो जाऊँगी
सो जाऊँगी 'इमरोज़'
समय दो समय दो
काम पूरा होते ही सो जाऊँगी मैं
गहरी नींद
फिर सोने देना
अपनी अमृता को जी भर
खू़ब खू़ब खू़ब
काम अभी बाकी़ है
जैसे तुमने अपनी अमृता को
कभी अधूरा नहीं रखा
बस वैसे ही मैं 'अमृता' को
अधूरा छोड़ना नहीं चाहती
'इमरोज़' बाहें खोलो
'अमृता' पूरी हुयी
'अमृता' पूरी हुयी
अब सोना चाहती है तुम्हारी 'अमृता'
सदा के लिये
हमेशा हमेशा के लिये
तुम्हारी आगोश में
सुकून की नींद
इमरोज़ बाहें खोलो



कमला सिंह 'ज़ीनत'

4 comments:

  1. बहुत ही सुंदर ..... आपके शब्द सम्मोहित करते हैं ....

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  2. बहुत सुन्दर और भावुक रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर ----

    आग्रह है- मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    हम बेमतलब क्यों डर रहें हैं ----

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