मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की' एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों
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मेरी गुर्बत मेरे महबूब की रुसवाई है
फुस का घर मेरा बोसीदा है आबाई है
मुझसे नफरत है खुदारा के शनासाई है
जुल्फ के साये में मय्यत मेरी रखवाई है
ले के रुदादे मुहब्बत का चली हूँ दिल में
क़ब्र पे आहो-बक़ा होगी तो रुसवाई है
कह तो आई थी के चलती हूँ मैं खुदा हाफ़िज़
अब भी दीवारों में क्यों गूंजती शहनाई है
उनको भूले हुए जब एक ज़माना गुज़रा
या इलाही यह बता कैसी नेदा आई है
'ज़ीनत' रखते हैं हम नाकाम आशिकों का हिसाब
कौन बर्बाद हुआ किसने सज़ा पायी है
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
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