Saturday, 8 August 2015

'एक अमृता और' की एक नज़्म 
'बोलो न कैसे लिखूं'
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मेरे सारे ख़्याल 
इबादत को तैयार हैं  हाथ बांधे 
कागज़ की मखमली चादर पर 
ख़्यालों की सफ़बंदी   है 
क़लम की नियत में बस तू 
लगातार मैं और तू के बीच 
गुज़र रही है एक सनसनी 
सिहरन सी सलवटों में 
टूट रही हूँ मैं 
टुकड़े-टुकड़े ,हिस्से-हिस्से 
बिखरी पड़ी हूँ मैं 
इस गहराई को कैसे लिखूं 
बहुत तूल है इसके अंदर 
बोलो न कैसे लिखूं 
बोलो न कैसे लिखूं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

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