Friday, 28 August 2015

एक अमृता और -( भाग -2 )
जिस दिन की थी तुमने वो शिकायत
किसी की नज़दीकी
ज़र्रा बराबर भी तुम्हें मंज़ूर नहीं...उफ्फ़
उस दिन बहुत किया था मैंने
तुमसे तकरार
पर सच मानो
मुझे बहुत ही अच्छा लगा था
तुम्हारा यही अधिकार तो भाता है मुझे
मुझे तुम्हारी क़ैद चाहिए रिहाई नहीं
तुम्हें मेरा उड़ना भी पसंद है और
हवाओं से मिलना भी मंज़ूर नहीं
हा..हा..हा... क्या बोलूँ मैं
सुनो तुम्हारी नाराज़गी जायज़ है
पर ज़िन्दगी की तलवार की धार भी
इधर बहुत तेज़ है
जब भी हमारे और उठे गरदन के बीच
स्वाभिमान का टकराव होगा
लहू चाटती हुई लाश
मर्सीया पढ़ने को तरसेगी
बस भरोसा रखना, ऐतबार करना
हम तुम्हारे हैं और तुम्हारे ही रहेंगे पगले
कमला सिंह 'ज़ीनत'

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