Monday, 24 August 2015

एक अमृता और - ( भाग -2 )
आसरे के महल में
इंतज़ार की उस कोठरी के सामने
अचानक मेरी नज़र 
जाकर टकराई है
ओसारे के कोने में टंगी
एहसास की उस पोटली पर
कभी रख छोड़ी थी जो तुमने
एहसासों की खुशबू मुहरबंद
हू ब हू उसी खुशबू की लिप्टन बटोरे
बंधी रक्खी हैं आज तक
अब तक और अभी भी वो पोटली
ओसारे में टंगी पोटली खूब तरो ताज़ा है
शायद तुम्हारा ही छुअन बाकी है उसमें
आओ कभी खोलें
पोटली की बंद गिरह को
और फिर से एक खुशबू बंद कर दें अपनी
ताकि फैलती रहे सदियों तक
हमारे होने की खुशबू
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

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