ये इश्क़, इश्क़ है, इश्क़ इश्क़
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यार बिना सब सूनापन हो ज़हर लगे संसार
तड़प तड़प कर आशिक़ मचले खुद पे करे प्रहार
इश्क़ न करदे इश्क़ को गूंगा इश्क़ है ये बेकार
इश्क़ में खाकी खाक़ न हो तो इश्क़ लगे व्यापार
तड़प तड़प कर आशिक़ मचले खुद पे करे प्रहार
इश्क़ न करदे इश्क़ को गूंगा इश्क़ है ये बेकार
इश्क़ में खाकी खाक़ न हो तो इश्क़ लगे व्यापार
डा.कमला सिंह "ज़ीनत"
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1982 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
shukriya aapko
ReplyDeleteबिन आस के दुनियाँ में जीने में क्या रक्खा है
ReplyDeleteदिल में दिलबर के लिए आशियाना बना रक्खा है
उसके प्यार और चाहत ने मुझे दीवाना बना रक्खा है
कहीं अकेला न रह जाहूं मैं जनाजा सजा रक्खा है
सुन्दर सटीक और सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
कभी इधर भी पधारें
sundar rachna
ReplyDeletethanku shukla ji
Deleteuttam prastuti aap ki
ReplyDeleteshukriya Aradhana ji
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