Saturday, 19 December 2015

एक ग़ज़ल आपके हवाले दोस्तो
---------19/12/2015 ---------
भूली बिसरी यादों से हम अक्सर मिलकर आते हैं
पीना छोड़ दिया है लेकिन मयखा़ने तक जाते हैं
आखों का पिछला दरवाजा़ छोड़ दिया था पहले ही
उन ख़्वाबों से चोरी - चोरी अपनी नींद उडा़ते हैं
बोल रहे हैं हम अपनों से रिश्ता तर्क हमारा है
एक पहर भी उन यादों को कैसे कहाँ भुलाते हैं
डर लगता है सच्चाई का लोग तमाशा कर देंगे
काग़ज़ पे पानी को लिखकर अपनी प्यास बुझाते हैं
करवट करवट चादर चादर सलवट सलवट रातों को
चाह भी लें तो देर तलक हम खुदको कहाँ सुलाते हैं
"जी़नत" सच की क़समें देकर पूछते हैं जब यार मेरे
कोई नहीं है यह बतलाकर झूटी क़समें खाते हैं
कमला सिंह 'ज़ीनत'

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