Monday, 28 December 2015

मतला एक शेर हाज़िर है
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मुझे तराश कर हीरा बना दिया उसने
निगाह डाल कर मीरा बना दिया उसने
नमक मिज़ाज़ थी होटों की चाशनी देकर
लुबाबे दहन से शीरा बना दिया उसने
धड़कते दिल का धड़कना सुनाई दे जाए
बस इस ख़याल से चीरा बना दिया उसने
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 23 December 2015

सारे सजदे अदा हो गए
हम मुसल्सल दुआ हो गए
उसकी रहमत के इक घूंट से
हम मुकम्मल नशा हो गए
शर्त रखते ही ऐसा हुआ
सारे रिश्ते हवा हो गए
बेवफा उनके होने तलक
मुस्तकिल हम वफ़ा हो गए
मेरी राहत को आये थे वो
रफ्ता रफ्ता सजा हो गए
तेरे अरमान ज़ीनत कई
पल ही पल में अता हो गए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
मुहब्बत तेरी तो 'ज़ीनत' वो खुश्बू ज़ाफ़रानी है 
कभी तू लौंग की खुश्बू, कभी गंगा का पानी है 
---------कमला सिंह 'ज़ीनत'
तेरे गुलशन में चहकने से ही दिल भरता है
बुलबुले चमने अदब चुप तेरी दुखदाई है
तू ही इज़्ज़त है सलामत है तुझी से ये बहार
तू नही है तो चमन वालों की रुसवाई है
____________कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 22 December 2015

वही 
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वजूद मेरा 
मेरे होने की 
दलील वही 
मैं प्यासी 
जिस जा फिरुँ 
बनता है सबील वही 
वही है मेरा खुदा 
मेरा रहनुमा मौला, 
वही है दरिया 
समंदर 
तो मीठी झील वही 
ज़माना तू क्या करेगा 
रहम का भिखारी 
तुम्हारे पास तो 
एक सांस भी लेना 
मुश्किल 
नहीं है 
दाता सिवा रब के  
पूरी दुनियां में 
मैं जानती हूँ 
मुझे फ़क्र है 
रहमानी पर 
मुझे फ़क्र है 
सुल्तानी पर 
मैं जानती हूँ 
मुझे फ़क्र है 
वो ख़ालिक़ है 
और मालिक है 
मैं जानती हूँ 
नहीं उसके मुक़ाबिल कोई 
वो आसमान का मालिक 
वही ज़मीन ,वाला 
परिंदों का ख़ालिक़ 
वही 
चारिंदो का शाह 
हवा चले तो 
वही ज़ेरो जबर 
करता है 
उसी के दम पे ज़माना 
उड़ान भरता है 
जलाल उसका 
कुदूरत पे है 
जलील वही 
वज़ूद मेरा 
मेरे होने की 
दलील वही 
--कमला सिंह 'ज़ीनत '

Saturday, 19 December 2015

एक ग़ज़ल आपके हवाले दोस्तो
---------19/12/2015 ---------
भूली बिसरी यादों से हम अक्सर मिलकर आते हैं
पीना छोड़ दिया है लेकिन मयखा़ने तक जाते हैं
आखों का पिछला दरवाजा़ छोड़ दिया था पहले ही
उन ख़्वाबों से चोरी - चोरी अपनी नींद उडा़ते हैं
बोल रहे हैं हम अपनों से रिश्ता तर्क हमारा है
एक पहर भी उन यादों को कैसे कहाँ भुलाते हैं
डर लगता है सच्चाई का लोग तमाशा कर देंगे
काग़ज़ पे पानी को लिखकर अपनी प्यास बुझाते हैं
करवट करवट चादर चादर सलवट सलवट रातों को
चाह भी लें तो देर तलक हम खुदको कहाँ सुलाते हैं
"जी़नत" सच की क़समें देकर पूछते हैं जब यार मेरे
कोई नहीं है यह बतलाकर झूटी क़समें खाते हैं
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 17 December 2015

एक ग़ज़ल आप सभी के हवाले मित्रों
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मुश्किल ये नहीं है कोई ज़ंजीर हिला दे
ये बात बडी़ है कोई तक़दीर हिला दे
सजदे में झुकी बैठी हूँ ऐ मेरे खु़दाया
किस्मत की मेरी थोडी़ सी तस्वीर हिला दे
लिखती हूँ हरइक शेर को मैं खून ए जीगर से
आसान नहीं है कोई तहरीर हिला दे
छोडा़ है निशाने पे भरोसे के कमाँ से
तूफाँ को कहाँ ताब रग-ए-तीर हिला दे
खु़द्दार का सर होता है ऐसा ही मेरे यार
दुश्मन के मुकाबिल होतो शमशीर हिला दे
"जी़नत" की दुआओं में असर देखने वालो
करवट जो दुआ लेले तो जागीर हिला दे
एक ग़ज़ल हाजि़र है दोस्तो
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मुझसे मुझको ही लापता करके
जि़ंदगी ले उडी़ हवा करके
एक मोहसिन था कोई अपना भी
भूल बैठा है अब वफा़ करके
उसको नज़रें तलाश करती हैं
कौन चुप हो गया सदा करके
बुत मुहब्बत का एक टूट गया
मैंने पाया भी क्या खु़दा करके
ज़ख़्म रिस्ते हैं आज भी मेरे
थक चुकी हूँ अजी दवा करके
माफ़ कर दूँगी उसको मैं "जी़नत"
वो मसीहा रहे ख़ता करके

Tuesday, 15 December 2015

आप सबके हवाले मेरी एक ग़ज़ल 
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तुम तो जाके बैठे हो गेसुओं के साये में 
जल रही हूँ मैं अब भी बिजलियों के साये में 

उँगलियाँ उठी होंगी तुम तो डर गए होगे 
जी रही हूँ मैं लेकिन तल्खियों के साये में 

क़ीमती जवानी थी जिसको तेरी गलियों में 
छोड़ कर चले आये खिड़कियों के साये में 

रौंदने लगी मुझको बेवफ़ाईयों तेरी
छटपटा रहे हैं हम सलवटों के साये में

क्यूँ जुदा नहीं करते क्यूँ भुला नहीं देते
टूटते हैं हम अक्सर दूरियों के साये में

तुम तो खुश हुए होगे इक न एक दिन शायद
मेरी उम्र गुज़री है हिचकियों के साये में

लड़ रही हूँ मैं तन्हा ज़ीनत अब हवाओं से
मसअला है जीने का आँधियों के साये में
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 14 December 2015

एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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हर तरफ नाग -नाग मिलते हैं 
चील कौवे और काग मिलते हैं 

अब तो पानी से भी सहमती हूँ 
झील -सूरत में आग मिलते हैं 

कुछ पुराने कथन बदलते नहीं 
चाँद वालों में दाग मिलते हैं 

झुंड  हर सु है  वनसियारों का 
 सुर नहीं , ना ही राग मिलते हैं 

खारे पानी   का है  समुंदर भी 
अब किनारों पे झाग मिलते हैं 

किस तरफ रुख करें कहो 'ज़ीनत' 
सारे   मनहूस  बाग़ मिलते हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 11 December 2015

अमीर लोग हो ,गुलशन चलो सजाओगे 
हर एक क़ीमती फूलों को भी लगाओगे 
बसा तो सकते हो फूलों में खूब खुशबू भी 
तराने गाये वो बुलबुल कहाँ से लाओगे 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 10 December 2015

मेरी दोस्त शिकायत है तुमसे 
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बिछड़न एक टीस 
एक दर्द ,एक आह 
एक सोज़ एक साज़ 
सिहर उठती हूँ 
बस ख़याल से ही। 
और हुआ भी यही 
ईमानदारी से निभायी मैंने दोस्ती 
हर कदम साथ 
सही या गलत ,फिर भी 
शिद्दत से निभायी दोस्ती 
फिर क्यों ये सिला दिया ?
वादाखिलाफी क्यों ?
बिना बताये ,बिना जताए ले गयी तुम 
हमारी बेशकीमती यादों का खजाना ?
इस दिल के तिजोरी की 
चाभी तो एक ही  थी ..... 
तुम बिना लौटाए ख़ज़ाने के साथ 
मौत के साथ हो ली  ... ?
अब कहाँ नसीब दोस्ती मुझे ?
तनहा रह गयी मैं  ... 
अधूरी  
बिलकुल अधूरी  ... 
तुम जहां हो खुश रहना  ... 
यही दुआ है और ईश्वर से प्रार्थना भी 
अलविदा 'जया '
.... कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday, 6 December 2015

मेरी एक ग़ज़ल पेश है 
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प्यार करना बहुत आसान नहीं होता है 
हर कोई दिल से सुलतान  नहीं  होता है 

मैंने माना के ज़माने में हैं अच्छे दिल भी 
सबकी  फ़ितरत  में शैतान नहीं होता  है  

बेवफ़ा  कौन  बनेगा यूँ  ही  चलते चलते 
भीड़  में  ये भी  तो  पहचान नहीं होता है 

शायरी यूँ  तो सभी  लोग किया  करते  हैं 
हर  कोई  साहिबे  दीवान  नहीं  होता   है

हम तो हिम्मत से सफ़र करते हैं शहरों-शहरों 
दूर   तक  रास्ता  सुनसान  नहीं   होता  है  

आज के दौर  में 'ज़ीनत' नहीं सबके बस में 
इश्क़   पर  हर  कोई  कुर्बान नहीं  होता  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 2 December 2015

बात करना जो ज़माने से तो तेवर रखना
तंग नज़रों से बचाकर के ये जे़वर रखना
अपने लहजे में शहद घोल कर रखना लेकिन
एक पहलू में छुपाए हुए ख़ंजर रखना
गर्चे कमज़र्फों की महफिल में ठिकाना हो कभी
बात करनी भी पडे़ उनसे भी तो बेहतर रखना
जब तलक आँखों में उस वादे का सुरमा ठहरे
मेरी इन पलकों पे , उस शख़्स का पहरा ठहरे
आईना वही है अभी , शीशा भी वही है
इक अक्स सलामत है और चेहरा भी वही है
कभी आओ ना फुर्सत में तुम्हें हम ग़म सुना देंगे
हमारे ग़म को सुन लेना वहीं पत्थर बना देंगे
कभी दिल टूटने का हादसा जी भर के सुनना तुम
ये दावा है मेरे मोहसिन तेरी नींदें उड़ा देंगे
मेरे दामन में कांटें हैं , यही तोहफा़ हमारा है
मुक़द्दर में यही तो है तुम्हीं बोलो की क्या देंगे
जो दामन तार है मेरा फ़क़त,क़िस्मत की दौलत है
इसी दामन की क़तरन से कोई गुड़िया बना देंगे
न ग़म करना हमारी मुफलिसी पर ऐ मेरे हमदम
पडेगा वक़्त तो तुझ पर ,चलो खुद को लूटा देंगें
नज़र बद है तो है दुनिया मगर'ज़ीनत'का वादा है
तुम्हारे वास्ते जाओ चलो खुद को छुपा देंगे
----कमला सिंह 'ज़ीनत'