मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है मेरी पुस्तक 'रेत की लकीर' से आप सबके हवाले
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जब उसकी चाह में अजी बेदार हो गए
पढता रहा था मुझको वो अखबार हो गए
दिन रात वो हमारे तसव्वुर में था बसा
हम भी उसी के शौक़ बीमार हो गए
उसकी तरफ जो मौजें मिटाने को बढ़ चली
कश्ती में ढल गयी कभी पतवार हो गए
इतना किया था प्यार की उसके ही वास्ते
चाहत के हर मुकाम पे किरदार हो गए
लब पर लिया था जोशे मुहब्बत में उसका नाम
मक़तल तमाम साहिबे तलवार हो गए
मुंसिफ ने शर्त रख दिया सच बोलना पड़ा
दुनियाँ के रूबरू सभी इक़रार हो गए
'ज़ीनत' हमारे नाम पे इल्ज़ामें इश्क़ था
पाकर उसी इनाम को सरशार हो गए
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
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