Thursday 11 September 2014

एक अमृता और
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तुझे और लिखने की जुस्तजू
तुझे और पढ़ने की आरजू़
तू तमाम लहजे में ज़ब्त है
तेरी आशिकी़ का कमाल है
तुझे देखने की हैं हसरतें
तू क़रीब तर ही बसा करे
यही दिल परिशाँ दुआ करे
मुझे अब न कुछ भी दिखायी दे
मुझे अब न कुछ भी सुनायी दे
तू ही तू हो मेरी निगाह में
यही फि़क्र मुझको हयात तक
मेरी साँस उलझे तमाम तक
कोई रास्ता हो न राह हो
वही आह हो वो कराह हो
कोई राह निकले न सुब्ह हो
मुझे इसका भी तो गि़ला नहीं
ऐ मेरी ख़लिश के हुजू़र सुन
मेरा होना तेरे ही साथ है
ये ज़माना जब भी पता करे
जहाँ तक हो उसकी तलाशियाँ
कोई शक्ल उभरे न अक्स हो
कोई नाम हो न वरक़ वरक़
तू ही तू लिखा हो ब्यान में
ये कलम की नोक रकम करे
मेरा इश्क़ तेरे ही साथ साथ
दिले बागबाँ का सफर करे
मुझे आह तेरी बिसात पर
कोई हादसा भी गुज़र करे
यही इक तमन्ना है उम्र भर
तेरा होके मैं फिरुँ ,दर-बदर
उसी अमृता की ज़बान में
यही नज़म लुत्फे़ ख़्याल है
ये है फि़क्र जी़नत की दास्ताँ
ज़रा देखें किस जा करे असर  ।
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

2 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (12.09.2014) को "छोटी छोटी बड़ी बातें" (चर्चा अंक-1734)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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