एक अमृता और
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वाह रे मेरी उजली चादर
हजा़र पन्नों की थान
क्या खूब रही मेरी बिदायी
क्या खूब दिया क़फ़न तुमने
मेरा लिखना कितना पसंद है तुम्हें
चलो तो फिर लिखती हूँ मैं
क़्यामत तक के सफ़रनामे को
एक कोना बचा रखूँगी फिर भी
तुम आना तो अपनी कूची साथ लाना
लिख जाना इश्किया रंगसाजी़ से
अपने और हमारे बीच के रंग रंग को
आसमान लिखूँगी
सितारे टाकूँगी
जड़ दूँगी कुछ चाँद
बिठा दूँगी एक सूरज तुम सा, हू -ब- हू
अल्फा़ज़ की सरसर हवाओं से
लहरेदार लिखूँगी एक नज़म इश्कि़या
मैं तो बाद मरने के भी
तुझमें ही समायी बैठी हूँ रंगसाज़
यह सफेद क़फ़नी भी जानती है
इस बात को
तो क्यूँ न लिखू़ँ
तुमको
खुद को
और हमारे तुम्हारे बीच के
अटूट बंधन को
एक खुशबू को
एक हयात को
एक कशिश को
आना तो अपनी कूची साथ लाना
और कुछ रंग भी
मेरे रंगसाज़
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'
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