एक ग़ज़ल हाजि़र दोस्तो
वस्ल-ए-महबूब इस क़दर फ़ड़के
उसको सोचूँ नज़र -नज़र फ़ड़के
उसको सोचूँ नज़र -नज़र फ़ड़के
चलते - चलते वो याद आता है
शाख़ झूमे शजर - शजर फ़ड़के
शाख़ झूमे शजर - शजर फ़ड़के
जिस्म बेहाल करता जाता है
वो रग- ए -जाँ में बाअसर फ़ड़के
वो रग- ए -जाँ में बाअसर फ़ड़के
जिस जगह जाऊँ साथ चलता है
उसके होने का ही असर फ़ड़के
उसके होने का ही असर फ़ड़के
हाल करना ब्यान मुश्किल है
कैसे बतलाऊँ किस क़दर फ़ड़के
कैसे बतलाऊँ किस क़दर फ़ड़के
जब भी यादों के पाँव थकते हैं
वो पसीने सा तर- ब -तर फ़ड़के
वो पसीने सा तर- ब -तर फ़ड़के
"जी़नत"उसके बगै़र क्या चलना
वो रहे साथ तो डगर फ़ड़के
वो रहे साथ तो डगर फ़ड़के
कमला सिंह 'ज़ीनत'
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