एक ग़ज़ल हाजि़र दोस्तो
वस्ल-ए-महबूब इस क़दर फ़ड़के
उसको सोचूँ नज़र -नज़र फ़ड़के
उसको सोचूँ नज़र -नज़र फ़ड़के
चलते - चलते वो याद आता है
शाख़ झूमे शजर - शजर फ़ड़के
शाख़ झूमे शजर - शजर फ़ड़के
जिस्म बेहाल करता जाता है
वो रग- ए -जाँ में बाअसर फ़ड़के
वो रग- ए -जाँ में बाअसर फ़ड़के
जिस जगह जाऊँ साथ चलता है
उसके होने का ही असर फ़ड़के
उसके होने का ही असर फ़ड़के
कमला सिंह 'ज़ीनत'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-01-2016) को "सुब्हान तेरी कुदरत" (चर्चा अंक-2224) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
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