Tuesday, 30 April 2013

टूटे मकान की दिवारें,
आपस मे बातें करती है...

ऐ सखी !
तुम कितने सालों से बेज़ान पड़ी हो?

ऐसी बातेँ सुन कर वो 
अनायास ही अट्हास करती है..

अब तो शरीर ही ज़र-ज़र 
हो चले है 
और तुम बेज़ान की बात करती हो ?

यहाँ ना कोई आता है और ना कोइ जाता है.
और ना ही पुछता है, कि तुम कैसी हो ?

फिर भी मै उन गुनाहगारों को माफ कर 
ठिकाना देती हूँ.. 
आराम करने का .!

ख़ैर मेरी छोड़ो, तुम अपनी तो कहो, 
तुम ने क्या जाना इस ज़िन्दगी में...

वो कहती है !
ये बुत भी अब बेईमान हो चले है.. 

पता नही मै कब चली जाऊ..........
.......''कमला सिंह''..........

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