Tuesday, 30 April 2013

दर्द का अफ़साना लिये फिरती हूँ । 
बिखरे रंगो का खजाना लिये फिरती हूँ ।


टूटे हुए सूरो का मयखाना लिये फिरती हूँ ।
छलके हुए जाम का पयमाना लिए फिरती हूँ ।

मै वो हूँ जिसने इन्द्रधनुषी रंगो को बिखरते देखा है,
सुरो के झनकार को सिसकते देखा है ।

धरती के कलेजे को फटते देखा है,
सीता जैसी नारियो को ध्ररती मे समाते देखा है ।

पेड़ से टहनियो को अलग होते देखा है । 
समुंद्र को भी हुंकारते देखा है । 

ये आज के वक़्त की कहानियाँ है, 
जिस ने राजा को रंक और रंक को राजा होते देखा है..
.............''कमला सिंह''..............

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