Sunday, 28 June 2015

एक मतला एक शेर
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जब मेरी यादों का जलता हुआ सहरा होगा
थकन से बैठ कर किस हाल में तडपा होगा
गुज़रती यादों की तासीर से यकीनन वो
सुलगती आंखों से बे-साख्ता बरसा होगा
एक मतला एक शेर
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हाँ उसी साये का पहरा होगा
जो हकीकत में फरिश्ता होगा
आ के महकेगा कभी खुश्बू सा
और मेरी रूह से लिपटा होगा

Friday, 26 June 2015

 एक ग़ज़ल आपके हवाले *
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काश तुम  पर  जो मरते नहीं 
तिनका-तिनका बिखरते नहीं 

आँधियाँ  बोल  कर  आई थीं 
तुम  जो  होते  उजड़ते  नहीं 

चाँद  तुम   मेरे  होते  अगर 
आसमाँ   से   उतरते    नहीं 

तुम जो रुसवा ना करते मुझे 
हम   ज़माने  से  डरते  नहीं 

तेरा  साया जो होता तो  हम 
इस  चमन  में  सिहरते  नहीं 

बज़्म में आज 'ज़ीनत' ग़ज़ल 
पढ़  के हम  भी सँवरते नहीं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत' 

Thursday, 25 June 2015

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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 आग हरसू   लगाए फिरते हो 
बादलों  को   डराए   फिरते हो 

कौन जाने की, कब खुदा बदले
आजकल  बुत उठाए फिरते हो 

कितने मासूम खा गए धोका 
ऐसी  सूरत  बनाए  फिरते  हो 

अंधे  बहरों  के बीच  ऐ   साधू 
कौन सा धुन सुनाए फिरते हो 

अपनी मुट्ठी में आँधियाँ लेकर 
रौशनी  को बुझाए  फिरते  हो 

'ज़ीनत' तो पर्दा कर गयी कब की 
लाश  किसकी  उठाए फिरते हो
---कमला सिंह 'ज़ीनत' 
 

Tuesday, 23 June 2015

कब तक छुपाऊंगी मैं तुम्हें
कब तक परदादारी हो तुम्हारी
कब तक ढांप के रखूं तुम्हें
कब तक बचाऊं तीरे नज़र से
कब तक पोशीदा रख पाऊं
कब तक तुझे जाहिर न करूँ
कब तक ओझल रखूं
कब तक तेरे होने का शोर न हो
कब तक तू अयां न हो सके
कब तक तेरा ज़हूर न हो
कब तक तुम्हें बचाए रखूं
तू तो खुद ही रौनक-ए- तूर है
मसनद-ए- दीद पर मामूर है
तू ही जीनत का कोहिनूर है
तू ही जीनत का कोहिनूर है
तुम्हारी यादों की कश्ती
लगी रहती है
दिल के टापू पर
धडकनों की हलचल से डगमगाती
तुम्हारी इस कश्ती की डोर थामे
पडी रहती हूँ मैं
आसरे की लहरों से
तुम्हारे होने की खुशबू
आंचल के गोटे से टकराती है
मझपे हाँ मुझपे
एक ज़माना गुज़र जाता है
जब - जब तू याद आता है
जब - जब तू याद आता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक शेर हाजिर करती हूँ दोस्तों
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मुजस्समा तो बना सकता है कोई कुम्हार
जो जान डाल दे पुतले में वो निगाह कहाँ