Tuesday, 20 August 2013

दूरियां

जब भी  करीब आती हूँ जिंदगी तेरे 
तू दूर उतनी ही चली जाती है 
बढ़ाती हूँ जो हाथ थामने को तुझे 
तू झट से छुड़ा जाती है 
मालूम है मुझे,और हकीकत भी है 
हमेशा ही रिझा जाती है 
ना जाने क्यों पास आकर भी 
मुझसे तू दूर चली जाती है 
क्या खता है,क्या गुनाह है मेरा 
तनहा यूँ ही छोड़ जाती है 
खलिश होती है जिगर में तेरे ठुकराने से 
सांसों की लय भी मद्दम हो जाती है 
हर घडी इंतज़ार रहता है आँखों में 
पत्तियों की ससराहट भी दुश्वार हो जाती है 
किस उम्मीद को सीने से लगाती   
जिंदगी की राह में मौत को अपनाती  हूँ मैं 
जिंदगी की राह में मौत को अपनाती हूँ मैं  
------------------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

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