ऐब कितना तुम्हारा ढँकते हैं
हम तेरी चाह में भटकते हैं
तपते एहसास की पहाडी़ पर
मुर्दा चट्टान सा चटख़ते हैं
धीरे धीरे पिघल रहें हैं हम
जाने किस ओर को सरकते है
दर्द का इक खींचाव है रुख़ पर
हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं
कोई मौसम नहीं है इनके लिये
ये अजब आँख हैं बरसते हैं
ज़ख़्म भी तो रहम नहीं करते
रात दिन ये भी तो सिसकते हैं
सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब
बोलिये क्यूँ भला भड़कते हैं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
हम तेरी चाह में भटकते हैं
तपते एहसास की पहाडी़ पर
मुर्दा चट्टान सा चटख़ते हैं
धीरे धीरे पिघल रहें हैं हम
जाने किस ओर को सरकते है
दर्द का इक खींचाव है रुख़ पर
हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं
कोई मौसम नहीं है इनके लिये
ये अजब आँख हैं बरसते हैं
ज़ख़्म भी तो रहम नहीं करते
रात दिन ये भी तो सिसकते हैं
सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब
बोलिये क्यूँ भला भड़कते हैं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
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ReplyDeletebahut hi behtareen gazal
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