मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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फिर उसी सम्त से इक बार सदा दे मुझको
खुशबूओं से हो मोअत्तर वो हवा दे मुझको
पास रहने दे ख्यालों को ज़रा पहलू में
या तो फिर जाने दे पहलू से उठा दे मुझको
इक फटी सी हूँ मैं चादर तेरे क़ाबिल तो नहीं
गर तरस आये तुझे यार बिछा दे मुझको
दिल में जो गर्द है नफरत की कोई बात बने
सामने आती हूँ जी भर के सुना दे मुझको
चूम के लब के हरे शाख़ को मेरे हमदम
शोख़ उल्फ़त की कोई रंग-ए-हीना दे मुझको
आख़िरी लफ्ज़ ठहर जाए लब-ए-'ज़ीनत' पर
मेहरबाँ हो के तू पत्थर सा बना दे मुझको
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
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