Tuesday, 19 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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जब मुहब्बत के परिंदे को जी पर लगने लगा 
जाने क्यों  ऐसे  में अपनों से डर  लगने लगा 

प्यार जब हो गया तो ,फ़ितरतन ख़ामोश रही 
एक सुनसान सा मेरा  भी ये घर  लगने लगा 

होश  क्यों  खोती रही  उसके तसव्वुर में भला 
मुझको ये  तो मुहब्बत  का असर लगने लगा

जानी दुश्मन वो  मेरे  होश का आया ज़ालिम  
जिस्म एकदम से मेरा ऐसे में तर लगने लगा 

नींद  उड़  जाती  है आँखों  से थकन ओढ़े हुए 
जाके तकिए से परीशान - सा सर लगने लगा 

देखती  जब  भी  हूँ  'ज़ीनत'  ये  नज़ारा कोई 
टूटा बिखरा हुआ अपना ही ये दर लगने लगा 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

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