आखिर क्यूं है ये बेचैनी
क्यूँ है इतना खिंचाव
यह जकड़न और तड़पन
बेकरारी के जाले में उलझा उलझा मन
नासमझ सी दीवानगी
बेलगाम सांसों का हुजूम
वक्त़ बे वक्त़ इक तलाश
नज़रों पर साजिशी यलग़ार
यह किसका सोज़ है
यह कैसी साज़ है
यह कौन सी आवाज़ है
सर से पांव तलक झनझना उठती हूँ मैं
बस करो
अब बस भी करो
याद न आओ
हिचकियों की आमद से परिशान हूँ मैं
बिलकुल तुम्हारी तरह
हां उसी तरह
कमला सिंह 'ज़ीनत'
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