Tuesday, 20 October 2015

आओ फिर से बहार बनकर
चमन वालों ने पुकारा है
तितलियाँ आंखें बिछाए पड़ी हैं
पत्तियों पर शायराना शबनमी बूटे हैं
भंवरे कतार में खड़े हैं
आमद की खुशबू पसरी है
मैं भी वहीं बैठी हूं
हरी घांस पर
आओ न बहार
तुम्हारे होने और पास बैठने के पल में
घांस सहलाना तोड़ना और उसी जगह
छोड़ कर लौट जाना
बातें सुनी अनसुनी
कही अनकही
आओ न
आओ फिर से बहार बनकर
_________कमला सिंह 'ज़ीनत'

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