Thursday, 21 July 2016

ताक बाती दीया उसी का है सब
वह जलाये बुझाये मर्जी- ए -रब
कमला सिंह 'ज़ीनत'


दो चार दिन ही बच गये मंजि़ल के हूं करीब
पीछे अब मुड़ के देखूं या आगे सफर करुं
कमला सिंह 'ज़ीनत'


मसअला सामने है पेचीदा फैसला भी नहीं उतरता है
पीछे वाला पुकारता है मुझे आगे वाला इशारे करता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'


पर झुलसने की गर कहानी है
फिर तो परवाज़ आसमानी है
कमला सिंह 'जी़नत'


काफिर शुमार करके सही शैख मोहतरम
बुत मेरा मेरे साथ ही रखियो कफन तले
कमला सिंह 'जी़नत'


दो पल
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बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
जीवन जिसे कहते हैं
खुद आग लगाये हम
चढ़ते हैं बलंदी पर
इक मौत का कुआं है
जिस कुऐं में इक दिन हम
इस मेले झमेले में
इस खेल तमाशे में
कल कूद ही जायेंगे
कल दूसरे आयेंगे
जो खेल दिखायेंगे
हम हाथ मले तन्हा
इस दुनिया ए फानी से
कहते हुए जायेंगे
बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 19 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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जब मुहब्बत के परिंदे को जी पर लगने लगा 
जाने क्यों  ऐसे  में अपनों से डर  लगने लगा 

प्यार जब हो गया तो ,फ़ितरतन ख़ामोश रही 
एक सुनसान सा मेरा  भी ये घर  लगने लगा 

होश  क्यों  खोती रही  उसके तसव्वुर में भला 
मुझको ये  तो मुहब्बत  का असर लगने लगा

जानी दुश्मन वो  मेरे  होश का आया ज़ालिम  
जिस्म एकदम से मेरा ऐसे में तर लगने लगा 

नींद  उड़  जाती  है आँखों  से थकन ओढ़े हुए 
जाके तकिए से परीशान - सा सर लगने लगा 

देखती  जब  भी  हूँ  'ज़ीनत'  ये  नज़ारा कोई 
टूटा बिखरा हुआ अपना ही ये दर लगने लगा 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 15 July 2016

चूर होकर जो दम -ब- दम उतरे
साथ कोई क़दम क़दम उतरे
उन ख़यालों की सीढियां चलकर
रफ़्ता रफ़्ता सँभल के हम उतरे
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 14 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है आप सबके हवाले 
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इश्क़  में तेरे क्या  हो गयी 
मुस्तक़िल  इक  दुआ  गयी

इक चमन की मोहब्बत में मैं 
हाय  बाद- ए -सबा  हो  गयी 

बनके  तितली सी उड़ती रही 
इक  मुकम्मल हवा हो  गयी 

मेरी   खुशियों   यूँ  देख  कर 
ज़िंदगी  भी  फ़िदा  हो   गयी 

उसको  पाते  ही  मैं   बा-ख़ुदा
आज  ख़ुद  से  जुदा  हो  गयी

आज 'ज़ीनत' ग़ज़ल आपकी 
सुर्ख़  रंग- ए -हीना  हो  गयी   
---'कमला सिंह  'ज़ीनत'

Monday, 11 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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आग   खुद  में  लगाए  हुए हैं 
दिल  में   उसको  बसाए हुए हैं 

उसकी  सरकार में इक सदी से 
अपने  सर को  झुकाए  हुए हैं 

जिसको होती नहीं मैं मयस्सर 
मुझपे  तोहमत  लगाए  हुए हैं 

हर सितम सह के  ज़िंदगी का 
गम   में  भी  मुस्कुराए  हुए हैं 

जो भी आता है उसके मुक़ाबिल 
उसको  क़द  से  गिराए  हुए   हैं 

उसकी चाहत में हम आज 'ज़ीनत'
अपना  सब  कुछ  लुटाए  हुए  हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 8 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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फिर उसी सम्त से इक बार सदा दे मुझको 
खुशबूओं से हो मोअत्तर वो हवा दे मुझको 

पास  रहने  दे  ख्यालों  को  ज़रा  पहलू में
या तो फिर जाने दे पहलू से उठा दे मुझको 

इक फटी सी हूँ मैं चादर तेरे क़ाबिल तो नहीं
गर  तरस आये तुझे यार  बिछा दे मुझको 

दिल में जो गर्द है नफरत की कोई बात बने 
सामने आती  हूँ जी भर  के सुना दे  मुझको

चूम  के  लब  के हरे  शाख़ को  मेरे हमदम  
शोख़ उल्फ़त की कोई रंग-ए-हीना दे मुझको 

आख़िरी लफ्ज़ ठहर जाए लब-ए-'ज़ीनत' पर 
मेहरबाँ  हो के तू  पत्थर  सा बना दे मुझको 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'