मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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प्यासी हूँ बहुत प्यास है अब जाम दे साक़ी
रिन्दों में किसी तौर से अब नाम दे साक़ी
ठहरा ही नहीं कोई भी मयकश मेरे आगे
हर ओर मेरा ज़िक्र है ईनाम दे साक़ी
यूँ तो मेरे हिस्से में कई शब मिले बेहतर
अब ख़्वाहिशें इतनी है कोई शाम दे साक़ी
नज़रों से बनाऊँगी मैं पैमाने को शीरीं
ला जाम इसी हाल में कुछ ख़ांम दे साक़ी
उजरत तो हमेशा लिए जाता है तू सबसे
रौनक ये हमीं से है तो अब दाम दे साक़ी
'ज़ीनत' लिए बैठी है सुराही पे सुराही
कब होगी मुकम्मल ज़रा इल्हाम दे साक़ी
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
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