Sunday, 26 June 2016

बस यूँ ही 
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हर दिन ,हर वक़्त 
हर पल ,हर सेकंड 
कोई न कोई खबर आती है 
मरने की  ... 
मैं भी तो हर रोज़ मरती हूँ 
एक नए ताने 
एक नए उलाहने 
एक नयी बात 
रूठने का डर 
और एक बिछड़ने के दर्द के साथ 
शब के पहलु में आने से लेकर 
सुब्ह की किरणों के चूमने तक भी 
मुसलसल एक ही फ़िक्र 
एक ही डर 
एक ही बात 
फिर एक नयी मौत 
फिर एक नयी मौत 
--- कमला सिंह 'ज़ीनत'

शतरंज की चाल
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ज़िंदगी शतरंज है
हम सभी चाल चल रहे हैं अपनी अपनी
सामने वाला हार जायेगा
यही हसरत पाले खेल रहे हैं सभी
हम ज्यादा सर्वश्रेष्ठ हैं यह भी गुमान है
तो ठहरो ज़रा एक बात बताएं तुम्हें
यह धरती बहुत बड़ी है
और लोग एक से बढकर एक
हम भी उन्हीं में से एक हैं
हां तो तुम
जब मोहरे उठाने की कोशिश करते हो
तुम्हारे हिलने
और मोहरे को छूने के
बीच की दूरी से पहले ही
हम तुम्हारी अगली चाल तय कर लेते हैं
तो चलो अब खेलो मेरे साथ
शह और मात का खेल
----कमला सिंह 'ज़ीनत '
मैं भी चेहरा पढती हूँ (कुछ ख़ास महानुभाओं के लिए)
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जैसे के ईश्वर ने सभी को पारखी नजर
और
एक दूसरे को पढ लेने का फ़न दिया है
यह कृपा
ईश्वर की
मुझ पर भी है
आपका अनुमान क्या है
मेरे बारे में
पता नही मुझे
पर
आप क्या हैं ?
मैं खूब जानती हूँ
क्योंकि
मैं भी चेहरा पढती हूँ
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 24 June 2016

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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प्यासी हूँ बहुत प्यास है अब जाम दे साक़ी 
रिन्दों में  किसी  तौर से अब नाम दे साक़ी 

ठहरा  ही  नहीं  कोई  भी मयकश मेरे आगे
हर   ओर  मेरा   ज़िक्र  है  ईनाम  दे साक़ी 

यूँ  तो  मेरे  हिस्से में कई शब मिले बेहतर 
अब  ख़्वाहिशें  इतनी  है कोई शाम दे साक़ी

नज़रों  से  बनाऊँगी  मैं   पैमाने  को  शीरीं  
ला जाम इसी हाल में  कुछ  ख़ांम  दे साक़ी 

उजरत तो  हमेशा  लिए  जाता है तू सबसे 
रौनक ये हमीं  से  है तो अब दाम  दे साक़ी 

'ज़ीनत'  लिए  बैठी   है  सुराही  पे  सुराही 
 कब होगी मुकम्मल ज़रा इल्हाम  दे  साक़ी 
------कमला सिंह 'ज़ीनत' 

एक ग़ज़ल हाज़िर है आपके हवाले 
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लफ्ज़   सारे  अयाँ  हो  गए 
सारे   किस्से   बयाँ  हो गए 

वो   हमारा  हुआ   हु- ब- हु 
और  हम  कहकशाँ  हो  गए 

बात थी आपसी  कुछ मगर 
फासले   दरमियाँ   हो  गए 

रफ़्ता-  रफ़्ता   लगी चोट यूँ 
सिसकियाँ,सिसकियाँ हो गए 

हम सुलगते रहे रहे दर-ब-दर 
बा-ख़ुदा  तितलियाँ  हो  गए 

मौज  'ज़ीनत'  वो होता रहा 
और  हम  कश्तियाँ  हो  गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

एक ग़ज़ल हाज़िर है आपके हवाले 
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लफ्ज़   सारे  अयाँ  हो  गए 
सारे   किस्से   बयाँ  हो गए 

वो   हमारा  हुआ   हु- ब- हु 
और  हम  कहकशाँ  हो  गए 

बात थी आपसी  कुछ मगर 
फासले   दरमियाँ   हो  गए 

रफ़्ता-  रफ़्ता   लगी चोट यूँ 
सिसकियाँ,सिसकियाँ हो गए 

हम सुलगते रहे रहे दर-ब-दर 
बा-ख़ुदा  तितलियाँ  हो  गए 

मौज  'ज़ीनत'  वो होता रहा 
और  हम  कश्तियाँ  हो  गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 1 June 2016

बहुत ही उम्र हो लम्बी न ये बधाई दे
मेरे नसीब मुझे जि़द की वो मिठाई दे
ये शोख़ चूडि़यां पहना सकूं मैं बचपन को
जो हो सके तो मुझे मख़मली कलाई दे
कभी याद की मेरी बस्ती में भूले
अगर बचपने की वो नन्हीं सी गुडिया
मचलती,उछलती हुई पास आई
तो फिर दिल कडा़ करके ऐसे में उसको
हिरासत में लेकर बनाएंगे बंदी
निहारेंगे जी भर
बहुत प्यार देंगे
गले से लगाकर लिपट जायेंगे हम
कहां खो गई मेरी नन्हीं सी गुडिया
अरे वक्त़ तुमने ये क्या जु़ल्म ढाया
कहां थे कभी
अब कहां आ गये हम
क्या खुद
अपने बचपन को ही खा गये हम
समझ भी न पाए
समझ भी न आए
अजब दास्तां है
सुने न सुनाए
हमीं अपनी यादों में बैठे मुसलसल
बहुत याद आए
बहुत याद आए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
दुल्हन सी गुडिया की चुटिया आज भी बैठे गूंध रही हूं
बचपन के मेले में जाकर फिरकी वाला ढूंढ रही हूं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
हम तेरे शहर में आएंगे लिये बचपन को
क्या तेरे शहर में जि़न्दा हैं खिलौने वाले
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
aik matla aik sher
............................
करुं मैं कैसे भला ये निबाह बतलाए
उसी से पूछ रही हूं गुनाह बतलाए
हमारे पास नहीं मशविरा सलीके का
कोई हो रास्ता उम्दा तो आह बतलाए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
दिल दुखाते हुए जब दिल से मेरे तू निकले
आंख भर आए छलककर मेरे आंसू निकले
---कमला सिंह 'ज़ीनत'



एक मतला एक शेर
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दिल की दीवार से तस्वीर उतारा न करो
इस तरीके से गुनहगार को मारा न करो
दौड़ पड़ती हूं मैं कुछ हादसा हो सकता है
यूं अचानक मुझे बे-वक्त़ पुकारा न करो
----कमला सिंह 'ज़ीनत'