मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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जब उसकी सिम्त पत्थर देखता है
गुमाँ करता है रहबर देखता है
नहीं अल्लाह पर जिसको भरोसा
वही मनहूस दर-दर देखता है
नहीं मालूम कतरे को हक़ीक़त
उसे भी इक समुन्दर देखता है
कोई 'जमशेद ' का सागर न रखे
मगर सब कुछ सुख़नवर देखता है
जिसे आता नहीं परवाज़ करना
परिंदों को नज़र भर देखता है
तुम्हें 'ज़ीनत' सुनो इस अंजुमन में
नज़र वाला ही बेहतर देखता है
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
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