Tuesday, 31 January 2017

ज़मीं   से  शम्स  कभी  जो   क़रीबतर  होगा 
सुलगती  धूप  में  जलता  हुआ  नगर  होगा 

अलामतें  जो  क़यामत  की   शक्ल  ले  लेंगी 
ज़मीं  को  चाटता  फिरता  हुआ  बशर  होगा 

वह  दिन  भी आयेगा इक दिन ज़रूर आयेगा 
रहेगा  न  साया  कोई  और   न  शजर  होगा  

लरज़-लरज़  के ज़मीं पर गिरेगी  सारी उम्मीद 
किसी  की दुआ में न हरगिज़ कोई असर होगा 

फ़िजां  में   ज़हर  भरा   होगा  आग  बरसेगी 
लहुलहान   तड़पता     हुआ    समर    होगा 

वह  जिसने  'ज़ीनत'  दुनिया  तेरी बसायी है 
उसी  की  नज़र  परिंदों  का  बालो -पर  होगा 

---कमला सिंह 'ज़ीनत'

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