Wednesday, 8 February 2017

 एक ग़ज़ल 
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 आज खुद को किताब करने दे 
 ज़िन्दगी का हिसाब करने दे 

उम्र गुज़री है है पैचो-ख़म में बहुत 
खुद से खुद को ख़िताब करने दे 

रफ्ता-रफ्ता चुना है मुश्किल से 
खुद को अब लाजवाब करने दे 

शाखे हसरत पे जो हैं कुम्हलाए 
उन गुलों को गुलाब करने दे 

वक़्त के साथ फुट जाएंगे 
ज़ख़्में दिल है हुआब करने दे 

यूँ तो ज़ीनत नहीं मयस्सर वो 
फिर भी आँखों में ख्वाब करने दे 

----कमला सिंह 'ज़ीनत'

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