एक मतला दो शेर
जिंदगी कब तलक नश्तर रक्खे
कुछ तो मेरे लिये बेहतर रक्खे
कुछ तो मेरे लिये बेहतर रक्खे
जी रही हूँ किसी तरह से मैं
रोज़ कांधे तले बिस्तर रक्खे
रोज़ कांधे तले बिस्तर रक्खे
ज़ख़्म ही ज़ख़्म से भरी हूँ अभी
जिस्म पे ज़ख़्म के जे़वर रक्खे
जिस्म पे ज़ख़्म के जे़वर रक्खे
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