Monday, 31 March 2014

-----------ग़ज़ल---------
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खुद को टुकड़ों में बाँट देती हूँ 
रात आँखों में काट देती हूँ 

एक दिन भी गुज़ार ले कोई 
अपने हिस्से की रात देती हूँ 

सारे ज़ख्मों को ऐसी हालत में 
रोज़ के रोज़ चाट देती हूँ 

जीत और हार के तसलसुल में
अपनी क़िस्मत को मात देती हूँ

खुश्क होटों की प्यास बुझती नहीं
रोज़ दज़ला,फरात,देती हूँ

ऐ अदब चूम अपनी 'ज़ीनत' को
फ़िक्रो फन की ललाट देती हूँ
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

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