Monday 31 March 2014

---------------ग़ज़ल-------------------
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लहू उबाल दे अशआर की ज़रूरत है 
अभी तो शायरे -दमदार की ज़रूरत है 

हर एक सिम्त तमाशा है जश्ने मक़तल है 
कलम की शक्ल में तलवार की ज़रूरत है 

जो जम चुके हैं किनारों पे झाड़ियों कि तरह 
उन्हें मिटाना है मझधार की ज़रूरत है

थकी हुई हैं जो क़ौमे रहम के क़ाबिल हैं
उन्हीं को साया- ए-अशजार की ज़रूरत है

हमारे सर पे फ़क़त आसमान काफी है
हमें न दोस्तों मेमार की ज़रूरत है

जो रख दूँ पाँव तो दरिया भी रास्ता दे दे
ऎ ज़ीनत हमको न पतवार की ज़रूरत है
--------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

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