एक ग़ज़ल देखें
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अजीब लोग हैं तेवर बदलते रहते हैं
दरो - दीवार कभी घर बदलते रहते हैं
ज़मीन प्यारी है इतनी उड़ान की ख़ातिर
परिंदे रोज़ अलग पर बदलते रहते हैं
लिखी है खानह बदोशी हमारी क़िस्मत में
क़दम-क़दम पे यह मंज़र बदलते रहते हैं
तबीब आप परेशां न हों खुदा की क़सम
अजीब ज़ख़्म हैं नश्तर बदलते रहते हैं
कि अब तो नेज़े भी बे-फिक्र हो के बैठेंगे
शहीद होने को यह सर बदलते रहते हैं
ख़ुदा को भूल के ऐ 'ज़ीनत' जी मुसीबत में
अंगुठियों के ही पत्थर बदलते रहते हैं
---कमला सिंह 'ज़ीनत '
तबीब आप परेशां न हों खुदा की कसम
ReplyDeleteअजीब जख्म हैं नश्तर बदलते रहते हैं....
वाह !!!
क्या बात है....
बहुत ही सुन्दर गजल...
Shukriya Sudha ji
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