Thursday 24 September 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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अब मिलने-मिलाने का भी आसार नहीं है 
पहले  की  तरह  रास्ता  हमवार  नहीं   है 

ठोकर लगी तो हमको भी एहसास हो गया 
पत्थर  भी  मेरी  राह  का  बेकार  नहीं  है 

हम  हादसों  की  ज़द में  बराबर  खड़े  रहे 
थोड़ा भी  ज़िक्र  सुर्ख़ी-ऐ-अख़बार  नहीं  है 

है  आसमान  छत  मेरा आँगन  ज़मीन है 
इस  दरम्यान  कोई   भी  दीवार  नहीं  है 

अख्लाख़ की बिना पे हैं वह वक़्त के गाज़ी 
लड़ते   हैं  मगर  ज़ुंबिशे  तलवार  नहीं  है 

करता है जो भी 'ज़ीनत' दगा दूसरों के साथ 
उस आदमी  का  कोई भी  किरदार  नहीं  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

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