Thursday 17 September 2015

नज़्म ____खुद्दारी
बात इक चुभ गई
इस दिल में कई ज़ख्म बने
मैंने इस बात को 
सीने में ही तहबंद किया
आया जब भी तू मेरे पास
तो मुस्काई मैं
मुझको मालूम था
तू ज़ख्म का मरहम होगा
बाद उसके तो
मेरे ज़ख्म की रूस्वाई थी
बस इसी बात ने खुद्दार मेरी धड़कन को
आह करने न दिया
कोई तमाशा न किया
और हम
ज़ख्म की सूरत में यूं ही रिस्ते रहे
कोई मातम न किया
और न रंगत बदली
ज़िन्दगी काट दी
इक ज़ख्म हरा रखने में
आह इक बात ने
किस दर्जा मुझे मस्ख किया
दर्द ए दिल आह रे गुमनाम
तेरा ज़िक्र ही क्या
चल के अब देर हुई
शाम हुई शब जारी
सो गए ज़ख्म लिए
साथ लिए खुद्दारी

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