आज फिर मेरी ग़ज़ल आप सबके हवाले
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न तख़्तों -ताज ,नशेमन न गुहार माँगेंगे
उठा के हाथ दुआओं में असर माँगेंगे
ख़िजाँ के साथ गुज़ारी है ज़िन्दगी अपनी
बहार आएगी तो हम भी समर माँगेंगे
अभी तो पाँव के नीचे ज़मीन ठहरी है
संभल तो जाने दे फिर,ख़ुद ही समर माँगेगे
मेरा ज़मीर अभी कह के मुझसे लौटा है
वतन पे आँच जो आएगी तो सर माँगेंगे
चमन उजड़ गए तामीर हो गए हैं शहर
परिंदे लौट के आएँगे तो ,घर माँगेगे
क़बूल 'ज़ीनत' गर 'तूर' की ज़्यारत हो
दबी ज़बान से 'मूसा' की नज़र माँगेंगे
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
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