Wednesday, 13 April 2016

कभी हँसाता है मुझको कभी रुलाता है
वो इस तरीके से आकर मुझे सताता है
कहाँ तलक मैं ख़्यालात को ज़ंजीर करुँ
जकड़ के बैठूँ मगर फिर भी याद आता है
बिठा के रोज़ मुझे अपने दिल के मक़तब में
वो अपने प्यार का कलमा मुझे पढा़ता है
मैं उससे रुठूँ तो बेचैन होने लगता है
मनाने बैठूँ तो अक्सर वो रुठ जाता है
न जाने कैसी है आदत ख़राब ये उसकी
हमारी आँखों से वो नींद ही उडा़ता है
उचट ही जाती हैं नींदें हमारी रातों को
वो आस - पास नए गीत गुनगुनाता है
कभी मैं पूछूँगी उसके करीब ये जाकर
वो छोड़कर मुझे क्या अपने घर भी जाता है
किसे बसायेगा "जी़नत" वहाँ ख़बर तो लें
सुनहली रेत पे वो किसका घर बनाता है

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