Friday, 29 April 2016

प्यास से वो मर रहा था काम इतना कर गया
उँगलियों पे आँसू लेकर पानी लिक्खा मर गया
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
सूरज की सरगर्मी है
काफी ज़्यादा गर्मी है
फिर भी काट रहे हैं जंगल
कैसी ये बेशर्मी है
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 22 April 2016

अपने हिस्से का जब खु़दा देखा
ख़त्म होता सा फासला देखा
सर झुका और हाथ उठते ही
हर तरफ़ बस खु़दा खु़दा देखा
ज़िंदगी
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ज़िंदगी हादसों से गुज़री है
हादसातों का सिलसिला हूँ मैं
है जीगर किसका जो सुन ले मुझको
गाँठ खुलते ही सुलग जाते हैं लोग
इसलिए चुप है लबों पर जारी
कैसे कह दूँ खुली किताब हूँ मैं
ऐसी चादर है पिछली यादों की
रोज़ ब रोज़ रंग छोड़ती है
ताना पड़ते ही दरक जाती है
और सम्भाले नहीं सम्भलती है
बाद इस तार तार चादर के
इक नई और आई है चादर
जिसको ओढे हुए सुकून की नींद
सोती रहती हूँ मुख्ख्तसर ये है
बाद किस्सा ब्यान कल होगा
चादरों का यहाँ भरोसा क्या
वक्त़ के साथ रंग छोड़ती हैं
वक्त़ के साथ दरक जाती हैं
जाने कब तक ये सिलसिला हो नसीब
आह ये ज़िंदगी तमाशा करे
लज्ज्जतों का हमें बताशा करे
एक मुफ्लिस सी ज़िंदगी ज़ीनत
हाथ फैलाए ही गुज़ारा करे
जाने अब कौन है जो सुन लेगा
अब किसे बोल तू पुकारा करे
ये जुआ खेलना ज़रुरी भी है
और हर रोज़ खुदको हारा करे
दिल के आँगन में दाग़दार सही
रोज़ उस चाँद को उतारा करे
जो मुकद्दर में आज आया है
ज़िंदगी भर ख़ुदा हमारा करे।
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 13 April 2016

कभी हँसाता है मुझको कभी रुलाता है
वो इस तरीके से आकर मुझे सताता है
कहाँ तलक मैं ख़्यालात को ज़ंजीर करुँ
जकड़ के बैठूँ मगर फिर भी याद आता है
बिठा के रोज़ मुझे अपने दिल के मक़तब में
वो अपने प्यार का कलमा मुझे पढा़ता है
मैं उससे रुठूँ तो बेचैन होने लगता है
मनाने बैठूँ तो अक्सर वो रुठ जाता है
न जाने कैसी है आदत ख़राब ये उसकी
हमारी आँखों से वो नींद ही उडा़ता है
उचट ही जाती हैं नींदें हमारी रातों को
वो आस - पास नए गीत गुनगुनाता है
कभी मैं पूछूँगी उसके करीब ये जाकर
वो छोड़कर मुझे क्या अपने घर भी जाता है
किसे बसायेगा "जी़नत" वहाँ ख़बर तो लें
सुनहली रेत पे वो किसका घर बनाता है

Tuesday, 5 April 2016

पुस्तक से एक और ग़ज़ल
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सहन अपना बाँट दीजिये
तल्ख़ियों को पाट दीजिये
दूसरों को भी मिले सबक़
इक नया प्लॉट दीजिये
लिख के पूरी अपनी ज़िंदगी
डॉट - डॉट - डॉट दीजिये
दौर अब नहीं रहा जनाब
भाईयों को डाँट दीजिये
उठ गए जो आपकी तरफ़
उँगलियों को काट दीजिये
ज़िंदगी है फ़िल्म ये ज़ीनत
इक हसीन शॉट दीजिये
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'
हम जो इंसान अगर हैं तो निशानी रख दें
आओ प्यासे हैं परिंदे ज़रा पानी रख दें
जि़न्दा हैं इंसान अभी भी चिडि़यों को बतलायें हम
दाना - पानी अपने छत पर रखना भूल न जायें हम
न तो ईसाई हैं ,हिन्दू न ,मुसलमान हैं ये
ये तो बस प्यासे परिंदे हैं परिशान हैं ये