ज़िंदगी हादसों से गुज़री है हादसातों का सिलसिला हूँ मैं है जीगर किसका जो सुन ले मुझको गाँठ खुलते ही सुलग जाते हैं लोग इसलिए चुप है लबों पर जारी कैसे कह दूँ खुली किताब हूँ मैं ऐसी चादर है पिछली यादों की रोज़ ब रोज़ रंग छोड़ती है ताना पड़ते ही दरक जाती है और सम्भाले नहीं सम्भलती है बाद इस तार तार चादर के इक नई और आई है चादर जिसको ओढे हुए सुकून की नींद सोती रहती हूँ मुख्ख्तसर ये है बाद किस्सा ब्यान कल होगा चादरों का यहाँ भरोसा क्या वक्त़ के साथ रंग छोड़ती हैं वक्त़ के साथ दरक जाती हैं जाने कब तक ये सिलसिला हो नसीब आह ये ज़िंदगी तमाशा करे लज्ज्जतों का हमें बताशा करे एक मुफ्लिस सी ज़िंदगी ज़ीनत हाथ फैलाए ही गुज़ारा करे जाने अब कौन है जो सुन लेगा अब किसे बोल तू पुकारा करे ये जुआ खेलना ज़रुरी भी है और हर रोज़ खुदको हारा करे दिल के आँगन में दाग़दार सही रोज़ उस चाँद को उतारा करे जो मुकद्दर में आज आया है ज़िंदगी भर ख़ुदा हमारा करे। ----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Wednesday, 13 April 2016
कभी हँसाता है मुझको कभी रुलाता है वो इस तरीके से आकर मुझे सताता है
कहाँ तलक मैं ख़्यालात को ज़ंजीर करुँ जकड़ के बैठूँ मगर फिर भी याद आता है
बिठा के रोज़ मुझे अपने दिल के मक़तब में वो अपने प्यार का कलमा मुझे पढा़ता है
मैं उससे रुठूँ तो बेचैन होने लगता है मनाने बैठूँ तो अक्सर वो रुठ जाता है
न जाने कैसी है आदत ख़राब ये उसकी हमारी आँखों से वो नींद ही उडा़ता है
उचट ही जाती हैं नींदें हमारी रातों को वो आस - पास नए गीत गुनगुनाता है
कभी मैं पूछूँगी उसके करीब ये जाकर वो छोड़कर मुझे क्या अपने घर भी जाता है
किसे बसायेगा "जी़नत" वहाँ ख़बर तो लें सुनहली रेत पे वो किसका घर बनाता है