जरा लिखने दे अपनी जिंदगी और गुनगुनाने दे
मिली है पल दो पल की जिंदगी तो मुस्कुराने दे ---कमला सिंह 'ज़ीनतदिल के जज़्बात
Monday, 1 March 2021
Saturday, 11 November 2017
तुझसे किया है प्यार यही तो कुसूर है
इस बात पे भी यार क़सम से गुरुर है
रहती हूँ तेरी याद मेँ मसरुफ़ रात दिन
छाया हुआ है मुझ पे तेरा ही सुरूर है
क्या बात है की तुझमेँ ही रहती हूँ गुमशुदा
तुझसे कोई पुराना सा रिश्ता ज़रूर है
हर वक़्त जगमगाती हूँ उस रौशनी से मैं
सूरज है मेरा ,चाँद , तू ही मेरा नूर है
दीवाने पन को देख कर हैरत में लोग हैं
नफ़रत का देवता भी यहाँ चूर-चूर है
कहते हैं जिसको लोग पागल है बावला
'ज़ीनत' वही तो मेरा सनम बा-शऊर है
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
Friday, 10 November 2017
प्यार मुहब्बत ख़ुशियाँ जिस पर यारों हमने वार दिया
उस ज़ालिम ने बेदर्दी से तन्हा करके मार दिया
उसकी रूह से कोई पूछे वो सच बात बताएगी
जंगल को गुलज़ार बना कर मैंने इक संसार दिया
बीच लहर में जिस दिन कश्ती उसकी थी मजबूर बहुत
मैंने अपनी तोड़ दी कश्ती और उसे पतवार दिया
हाय रे मेरी क़िस्मत कैसी साजिश तेरी है ज़ालिम
जब भी जीत का मौक़ा आया जीत के बदले हार दिया
'ज़ीनत' तुझसे क्या दुख रोती सबका मालिक तू मौला
साँसें दी हैं शुक्र है तेरा लेकिन क्यों बीमार दिया
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Wednesday, 8 November 2017
एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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मैं ख़ता करूँ तो ख़ता लिखो
मैं वफ़ा करूँ तो वफ़ा लिखो
मेरी आँख देखो भी ग़ौर से
जो मैं डबडबाऊँ दुआ लिखो
मेरी ज़ुल्फ़ लहराए नागिनी
तो कलम उठा के हवा लिखो
कहाँ हम हों ,तुम हो पता नहीं
इसे लिखने वाले जुआ लिखो
मैंने ज़ख्म सारे दिखा दिए
ऐ तबीब अब तो दवा लिखो
जहाँ लिखना 'ज़ीनत' को फूल है
उसे शाख़ बिलकुल हरा लिखो
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
Friday, 3 November 2017
हाल बेहतर सुनाये काफी है
वो फ़क़त मुस्कुराए काफी है
मेरी गज़लें पढ़े , पढ़े न पढ़े
सिर्फ़ वो गुनगुनाए काफी है
उससे मुझको तलब नहीं कुछ भी
मुझको अपना बताए काफी है
वो बरसता रहे ज़माने में
एक पल मुझ पे छाए काफी है
नाम मेरा वो जोड़ कर ख़ुद में
मेरा रूतबा बढाए काफी है
उसको सोंचूं मैं रात -दिन 'ज़ीनत'
नींद मेरी उड़ाए काफी है
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
Monday, 16 October 2017
दिवाली
...........
मुझे वो दिवाली दोगे तुम ?
जहाँ बचपन की मेरी फुलझडी़
बिना छूटे
मेरी फूँक के इंतजा़र में
मायूस पडी़ है ?
मुझे वो आंगन दिलाओगे तुम ?
जहाँ मेरी साँप लत्ती की टिकया
आधी अधूरी फूंफकार कर सोई पडी़ है
मेरा वो धरौंदा ही दिला सकते हो ?
जिसके सामने मेरे बाबा
पलथी मारे मुस्का रहे हों
और अम्मा टकटकी बाँधे
मुझे निहार रही हो
मुझे वो बताशे के गुड्डे
लाई की उजलाई
चाशनी की चिडि़या
मोम का बतख सब चाहिये
मुझे बचपन चाहिये
मुझे बस वो दिवाली चाहिये।
—कमला सिंह ‘ज़ीनत’
...........
मुझे वो दिवाली दोगे तुम ?
जहाँ बचपन की मेरी फुलझडी़
बिना छूटे
मेरी फूँक के इंतजा़र में
मायूस पडी़ है ?
मुझे वो आंगन दिलाओगे तुम ?
जहाँ मेरी साँप लत्ती की टिकया
आधी अधूरी फूंफकार कर सोई पडी़ है
मेरा वो धरौंदा ही दिला सकते हो ?
जिसके सामने मेरे बाबा
पलथी मारे मुस्का रहे हों
और अम्मा टकटकी बाँधे
मुझे निहार रही हो
मुझे वो बताशे के गुड्डे
लाई की उजलाई
चाशनी की चिडि़या
मोम का बतख सब चाहिये
मुझे बचपन चाहिये
मुझे बस वो दिवाली चाहिये।
—कमला सिंह ‘ज़ीनत’
Saturday, 9 September 2017
एक ग़ज़ल देखें
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ज़ुल्म हो जब भी लड़ जाईये
ख़ौफ़ बन कर उभर जाईये
हौसला है अग र आप में
पार दरिया को कर जाईये
इतनी हिम्मत नहीं हो तो फिर
इससे बेहतर है मर जाईये
दुसरा कोई गुलशन नहीं
यह चमन है निखर जाईये
कल ज़माने को एहसास हो
छोड़ कर कुछ असर जाईये
'ज़ीनत' जी खूबसूरत ग़ज़ल
पढ़ के दिल में उतर जाईये
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
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