Saturday, 8 July 2017

एक ग़ज़ल 
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जब  वो   मेरी  नज़र  हो  गया 
खुद-ब-खुद मोअत्तबर हो गया 

एक   खाली   मकाँ    हम   रहे 
वो  दिलो  जां  ज़िगर  हो  गया 

अब   कोई  और  चौखट   नहीं
आख़री   मेरा   दर   हो   गया  

धुप   आती   नहीं    राह     में 
राह   का   वो  शजर  हो  गया 

रफ़्ता-  रफ़्ता   मेरी   चाह   में 
कितना  वो  बालातर  हो  गया  

दिल का 'ज़ीनत' वो है बादशाह 
दौलते   मालो  ज़र   हो   गया 

---कमला सिंह 'ज़ीनत '

Monday, 3 July 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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आग  हरसू  लगाए  फिरते  हो 
बादलों   को   डराए  फिरते  हो 

कौन  जाने की कब ख़ुदा बदले 
आजकल  बुत  उठाए फिरते हो 

कितने  मासूम  खा  गए धोका 
ऐसी   सूरत  बनाए   फिरते  हो 

अंधे   बहरों  के   बीच  ऐ  साधू 
कौन  सा  धुन सुनाए फिरते हो 

अपनी  मुट्ठी में  आँधियाँ  लेकर 
रौशनी  को   बुझाए   फिरते  हो 

'ज़ीनत' तो पर्दा कर गयी कब की 
लाश  किसकी  उठाए  फिरते  हो 
---कमला सिंह 'ज़ीनत '