रक्स-ए-शरर में रखा था,कदम फसल-ए-बहार जान के
ज़ीस्त भी सौपी थी तुझे, सौगात-ए-वफ़ा मान के
तेरे ज़ज्बात हैं मेरे लिए मानिंद सलासिल-ए-जिंदगी
तूने क्या शाम-ए-ज़ुल्मत दी,मेरी वफाओं को भी पहचान के
------------------------------ ----------------कमला सिंह 'ज़ीनत'
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