-------------एक ग़ज़ल---------------------
-------------------------------------------------
उसकी जानिब यूँही बढ़ते-बढ़ते
खो गयी मैं उसे पढ़ते-पढ़ते
मैंने इज़हार-ए-इश्क कर डाला
अपने ही आप से डरते-डरते
हो गए लफ्ज़ भी सुर्खी,मायल
सुर्ख लब पे मेरे चढ़ते-चढ़ते
इतनी शिद्दत से याद आया वो
आज मैं बच गयी मरते-मरते
कितने ही इम्तिहान से गुजरी
इक ज़माना उसे गढ़ते-गढ़ते
थक चुकी हूँ अजी 'ज़ीनत' अब तो
अपनी तन्हाई से लड़ते-लड़ते
----------------------कमला सिंह'ज़ीनत'
No comments:
Post a Comment