Sunday, 28 July 2013

मैं

 मेरे जिस्म के अन्दर
 एक मैं की जीनत है
 एक मैं की कमला है 
एक मैं की औरत है
 मैं से मैं परीशाँ हूँ
मैं से मैं हूँ शर्मिंदा,
सर उठाये रहती है, 
बात ही नहीं सुनती 
आग आग रहती है,
होश में नहीं जीती,
मुझ से ही झगड़ती है,
मुझको ताने देती है,
नकचढ़ी बहुत है वो ,
वो बद मिज़ाज पागल है,
मिन्नतें नहीं उसमे,
आरज़ू नहीं कोई,
जुस्तजू नहीं कोई लब पे,
सिर्फ़ वो तेज़ाबत है, 
आह की समुन्दर है
ज़ख्म का पिटारा है 
दुःख का एक मेला है
मैं से मैं परीशाँ हूँ 
कुछ दुआ करो यारो
मेरे ज़िंदा रहने का
रास्ता बताओ न
मुझको फिर हंसाओ न 
गीत गुनगुनाओ न
दोस्त सारे आओ न
मैं से मैं परीशाँ हूँ
मैं से मैं परीशाँ हूँ
------कमला सिंह जीनत -

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