कब तक छुपाऊंगी मैं तुम्हें
कब तक परदादारी हो तुम्हारी
कब तक ढांप के रखूं तुम्हें
कब तक बचाऊं तीरे नज़र से
कब तक पोशीदा रख पाऊं
कब तक तुझे जाहिर न करूँ
कब तक ओझल रखूं
कब तक तेरे होने का शोर न हो
कब तक तू अयां न हो सके
कब तक तेरा ज़हूर न हो
कब तक तुम्हें बचाए रखूं
तू तो खुद ही रौनक-ए- तूर है
मसनद-ए- दीद पर मामूर है
तू ही जीनत का कोहिनूर है
तू ही जीनत का कोहिनूर है
कब तक परदादारी हो तुम्हारी
कब तक ढांप के रखूं तुम्हें
कब तक बचाऊं तीरे नज़र से
कब तक पोशीदा रख पाऊं
कब तक तुझे जाहिर न करूँ
कब तक ओझल रखूं
कब तक तेरे होने का शोर न हो
कब तक तू अयां न हो सके
कब तक तेरा ज़हूर न हो
कब तक तुम्हें बचाए रखूं
तू तो खुद ही रौनक-ए- तूर है
मसनद-ए- दीद पर मामूर है
तू ही जीनत का कोहिनूर है
तू ही जीनत का कोहिनूर है
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-06-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2017 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut bahut aabhar
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteshukriya sir
Deleteबढ़िया
ReplyDeleteshukriya suman ji
ReplyDeleteजरूरत नहीं--क्योंकि जो नूर है--वह दिखता ही है.
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