Monday 27 October 2014

---ग़ज़ल---------
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वक़्त  के साथ  चल रहे हैं हम 
खुद को लेकिन बदल रहे हैं हम 

सीखना ज़िंदगी का  मक़सद है 
गिर  रहे  हैं संभल  रहे हैं  हम 

राह मुश्क़िल  बहुत  है काँटों भरी 
फिर भी बच कर निकल रहे हैं हम 

ज़िंदगी  तेरी  आबरू   के  लिए 
कितने हिस्सों  में पल रहे हैं हम 

अपनी हस्ती को करके इक सूरज 
ढल  रहे  हैं  निकल  रहे  हैं हम 

चांदनी  रात  में  'ज़ीनत' देखो 
करवट-करवट बदल रहे हैं हम 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 19 October 2014

ग़रीब  उसको  कहूँ   या   उसे  अमीर  कहूँ
वो हद से ज़्यादा ही खु़दको उडा़न देता है
लगी हो भूक उसे  चाहे प्यास  हो फिर भी
सवारी   लाद  कर   रिक्शे  को   तान  देता है
----कमला सिंह "ज़ीनत "
ghareeb usko kahun ya use ameer kahun
wo had se zyada hi khudko udaan deta hai
lagi ho bhuk use chahe pyaas ho phir bhi
sawaari laad kar rikshe ko taan deta hai
--कमला सिंह "ज़ीनत "

Saturday 18 October 2014

ऐब कितना तुम्हारा ढँकते हैं हम तेरी चाह में भटकते हैं तपते एहसास की पहाडी़ पर मुर्दा चट्टान सा चटख़ते हैं तुझमें कैसी कशिश है तू जाने हम तेरे रास्ते को तकते हैं धीरे धीरे पिघल रहें हैं हम जाने किस ओर को सरकते है दर्द का इक खींचाव है रुख़ पर हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं कोई मौसम नहीं है इनके लिये ये अजब आँख हैं बरसते हैं ज़ख़्म भी तो रहम नहीं करते रात दिन ये भी तो सिसकते हैं सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब बोलिये क्यूँ भला भड़कते हैं ----कमला सिंह 'ज़ीनत' @ 18th oct

Friday 17 October 2014

ग़रीबी माँ की ममता को जब काला चाँद देती है
तो फिर वो सब्र की हर सीमा अपनी लाँघ देती है
नज़र से उसके इक पल भी कहीं हो जायें न ओझल
कमर से अपने बच्चों के वो घुँघरु बाँध देती है
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

gariibi maa kii mamta ko jab kala channd deti hai
to fir wo sabr kii har seema apni apni langh deti hai
nazar se uske ik pal bhi kahin ho jaaye na ojhal
kamar se apne bachhon ke wo ghunghru bandh deti hai
----kamla singh 'zeenat'

Thursday 16 October 2014

जिस्म में आग लगाकर वो ऊँची सीढी़ पर
तमाशबीनों की ताली पे मुस्कुराता है
ग़रीब आदमी दो वक्त़ की रोटी के लिये
सुलगते मौत के कुएँ में कूद जाता है 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 15 October 2014

उसे रुपये से क्या मतलब वो रुपये को मसलती है
खनक सिक्के की गर सुन ले तो उसकी साँस चलती है
ग़रीबी आदतन खन खन से खुश हो जाती है अकसर
कटोरा हाथ में वो इसलिए लेकर निकलती है
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
use rupye se kya matlab wo rupye ko masalti hai
khanak sikke ki gar sun le to uski saans chalti hai
ghareebi aadtan khann khann se khush ho jaati hai aksar
katora haat me wo isliye lekar nikalti hai
--- kamla singh 'zeenat'

Tuesday 14 October 2014

अकेले रोज़ अपने आप से इक जंग लड़ती है
ज़माना भागता है और वो पल - पल पिछड़ती है
गरीबी जब नहाती है किसी सरकारी नलके पर
तभी कुछ बेहयायी की नज़र गु़र्बत पे पड़ती है
____कमला सिंह "ज़ीनत "

Monday 13 October 2014

बुढ़ापा और अपनापन
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तुम्हारी झुर्रियों ने मुझे बताया है कि
आँखों से निकलते यह नमकीन मोती
ज्वार बनकर
छाती के बीचो बीच अंदर ही अंदर
एक समुन्दर चीर डाला है
रोज उसमे उतरती हो तुम
दर्द दर्द नहाती हो तुम
कलपती हो कसमसाती हो
और फिर लौट आती हो
अपने निराशा के डेरे में
वही मैले ,कुचैले ,फटे ,बिखरे
अपमान की एकांत कोठर में
पुरानी यादों के साथ उफ़्फ्
उन्हें ही पहनती हो तुम
उन्हें ही धोती और सुखाती हो तुम
हर रोज़ हर समय
और फिर
उन्हें सहेज कर लत्ती लत्ती
दिल की गुमनाम संदूक में छुपा देती हो
इन चिथड़न में बस्ती हैं तुम्हारी आशाएँ
कही कोई चुरा न ले इन्हें सजग रहती हो
भीड़ के बीच भी अकेली होती हो तुम
साथ चलती हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़
यादों की परछाईयाँ
रात के अँधेरे में निर्झर बहती आँखें से
गंगाजल प्रवाहित कर
करती रहती हो शुद्ध पवित्र आत्मा को
फिर से छिड़क छिड़क कर गंगाजल
पाक और साफ़ करती हो मन मंदिर को
अपनी उन पुरानी यादों के कपड़ों को
सिल सिलकर प्रतिदिन
पहनने लायक बनाने की
करती रहती हो नाकाम कोशिश
जबकि तुमको पता है की
वो कल फिर से चिंदी चिंदी हो जायेंगे  कल फिर से फट ही जायेगें
---कमला सिंह 'ज़ीनत

Sunday 12 October 2014

दोस्तों आज मैं वृद्धाश्रम गई और उनकी आँखों में जो आंसू और दर्द देखा अपनों के लिए, और जो मैंने महसूस किया वो बताना चाहती हूँ -----
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मेरी आँखों ने देखे हैं तेरे ग़म के समंदर को 
तो कैसे भूल जाऊं मैं,भला ग़मनाक मंज़र को 
तड़पती रूह तेरी है, दुआओं की है तू देवी 
तू करती है छमा उनको,चुभोए हैं जो नश्तर को
महसूसा है जो इस दिल ने, तेरा सजदा मैं करती हूँ
बिखेरा फूल हैं तूने,सदा सुनसान बंजर को
तुम्हारी कोख से देवी ये है संसार की रोनक
तुम्हीं ने देवता,देवी है पाला और सिकंदर को
ये कहने में नहीं 'जी़नत' को कोई भी हिचक ऐ माँ
तुम्हारी मस्जिदों को है ज़रुरत और मंदिर को
____कमला सिंह "ज़ीनत "

Friday 10 October 2014

४ मिसरे आपके हवाले
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करता है वो वार हमेशा ,ज़हर लिए हर जुमले में
कर देता है वक़्त को जाया बेमक़सद के हमले में
रख दूँ पास परायी खुश्बू ,मुरझाये से फूलों की 
मेरा फूल खिला रहता है मेरे दिल के गमले में
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
karta hai wo vaar hamesha ,zahar liye har jumle mein
kar deta hai waqt ko jaya ,bemaqsad ke hamle mein
rakh dun paas paraayi khushbuu ,murjaye se fulon kii
mera fool khila rahta hai mere dil ke gamle mein
----kamla singh 'zeenat'
खून का प्यासा मेरा ला कोई लश्कर रख दे 
ला   मेरे सामने  इक जंग का मंज़र रख दे 
या तो सर मेरा उड़ा हौसला जो तुझमे हो 
या   फिर बैठ    मेरे सामने    खंज़र कर दे 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 9 October 2014

मेरी एक ग़ज़ल आपके हवाले 
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मेरे  पहलु  में  बेक़रार  आया 
फूल दामन में लेके ख़ार आया 

मुझको पल भर न मिल सकी फुर्सत 
जब उन्हें मुझ पर  ऐतबार आया 

मेरी खामोशियाँ सिसकती रहीं 
वह  सदाओं  में बार -बार आया 

कौन है जिसको तेरी दुनियां में 
मौत के नाम पर क़रार आया 

या  इलाही  यह कैसी मंज़िल है 
अपने क़ातिल पे मुझको प्यार आया 

'ज़ीनत' दिल का यहाँ भरोसा क्या 
एक   टूटा  तो चार -चार आया 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 8 October 2014

मेरी एक ग़ज़ल 
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जिस्म है लेकिन जान नहीं है 
तू जो  नहीं  तो  शान नहीं  है 

होंठ   हमारे  पड़   गए  पीले 
मुरली  है  पर  तान   नहीं  है 

तुझ से   दूर गए  तो समझो 
मेरी   भी   पहचान   नहीं  है

भूल  के  तुझको  जीना यूँ है 
फूलों संग  गुलदान  नहीं  है 

प्यार के बदले प्यार दे मुझको 
वरना  तू  इंसान   नहीं   है 

'ज़ीनत' को  दुःख  देनेवाला 
निर्धन  है  धनवान  नहीं  है
----कमला 'सिंह ज़ीनत' 

Monday 6 October 2014

४ मिसरे आपके हवाले --
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शिकवा करते हैं गीला करते हैं 
ऐसे भी लोग मिला करते हैं 
होते हैं खूब ये फन में माहिर 
ज़ख़्म दे दे के सिला करते हैं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'